Thursday, December 31, 2009

नव वर्ष

नई सोच, नई राहें;
होगीं कुछ नई बातें,
नया प्रभात, नई किरण,
गुलाबी ठण्ड में भीगे मन।
हों खुशियाँ,
और ढेरो मुस्कान,
स्वागत नव नर्ष,
तेरा हार्दिक अभिनन्दन॥


Friday, October 23, 2009

आवाज़ें, जिन्हें सुना नही गया

"शिखा"
"हाँ नाज़, बोलो क्या कहना है तुम्हे, आज कुछ परेशान लग रही हो।"
नाज़ और शिखा एक दूसरे की कट्टर दोस्त थीं। कट्टर इसलिए क्यूंकि बचपन से आज तक किसी ने भी उनको एक-दूसरे के बिना नही देखा था। स्कूल की पढाई पूरी कर दोनों अब दिल्ली के एक प्रतिष्ठित कॉलेज में ला की स्टुडेंट थीं। पढाई में तो दोनों अव्वल थी हीं, साथ ही साथ सामाजिक विषयों पर उनकी रूचि देखते ही बनती थी। महिला अधिकारों और उससे जुड़े कानूनों पर वे अक्सर घंटों चर्चा किया करती थीं.
शिखा ने फिर पूछा कि आखिर आज वो इतनी असहज क्यूँ लग रही है। "आज एक विषय पर केस स्टडी बना रही थी, पता नही पर कुछ अजीब सा लग रहा है ", नाज़ ने जवाब दिया। " तुमने भी मुस्लिम महिला अधिनियम, १९८६ पढा ही होगा। शिखा! हम मुस्लिम महिलाओं के अधिकार विवाह और तलाक जैसे मामलों में इतने सीमित क्यूँ होते हैं?"
नाज़ अपनी ही रौ में बोलती गई,"तुम्हे शाह-बनो केस तो याद होगा न। जब माननीय उच्चतम न्यायलय ने तलाक़ के बाद उसको गुजारा - भत्ता दिए जाने का आदेश दिया था। पर तब हमारे ही धर्म के कुछ तथाकथित पहरेदारों नें इस आदेश को मज़हब - विरुध्ध बताया था। और तो और करोड़ों मुस्लिम महिलाओं के भविष्य को अंधकार में डालने वाला एक काला कानून भी इस देश कि संसद में पारित किया गया था, बजाय ये ख्याल किए बिना कि मुस्लिम समाज का मतलब सिर्फ़ मौलवी नही है, उस समाज में महिलाएं और बच्चे भी आते हैं।"
इसके बाद काफ़ी देर तक वो दोनों इस बात पर चर्चा करती रहीं. ये बातें करते वक्त उन दोनों लड़कियों को न पता था कि घर कि छत की बहस का यह विषय भविष्य में फिर से कभी उनके सामने आकर खड़ा हो जाएगा।
(१० साल बाद)....
उन दोनों सहेलियों की जिन्दगी काफ़ी बदल चुकी थी. जहाँ शिखा वकालत की पढाई पूरी करके वकालत की प्रैक्टिस कर रही थी; वहीँ नाज़ की जिंदगी ने एक अलग ही मोड़ ले लिया था। पढाई के ही दौरान एक कॉलेज के प्रोफेसर मोहम्मद अकरम की इस लाडली बेटी का निकाह शहर के एक बड़े व्यवसायी मोहसिन ज़हूर के पुत्र अब्बास जहूर के साथ हो गया, और महिला अधिकारों की इस बड़ी समर्थक को अपनी पढाई बीच में ही छोड़नी पड़ी थी. कुछ साल तो काफी अच्छे से बीते और इस दरम्यान नाज़ दो प्यारी बेटियों की माँ भी बन चुकी थी। हांलाकि इस अवधि में प्रोफेसर अकरम का इंतकाल हो चुका था। पिछले कुछ दिनों से नाज़ और अब्बास के बीच काफी तनाव हो गया था, और एक दिन अब्बास ने नाज़ को तलाक़ दे दिया। अपनी बेटियों को लेकर नाज़ वापस अपने पीहर आ गई। पता लगते ही सबसे पहले शिखा ही उससे मिलने आई थी, और दस सालों के बाद वे दोनों फ़िर से उसी छत पर खड़ी थीं, उसी विषय पर बात करने के लिए, जिस पर कभी उन्होंने चर्चा की थी। अन्तर बस इतना था कि आज उस बहस में पात्र और कोई नही, ख़ुद नाज़ थी।
शिखा, जिसे अब तक सामाजिक अधिकारों से जुड़े कई मुद्दों पर केस लड़ने कि वजह से काफ़ी ख्याति मिल चुकी थी, उसने नाज़ को उसके अधिकार दिलाने का भरोसा दिलाया। शिखा ने एक और आपराधिक दंड संहिता-१२५ के तहत नाज़ और उसकी बेटियों के लिए गुजारा - भत्ता की मांग करते हुए मुकदमा दर्ज कराया, वहीं उसने उच्चतम न्यायलय में मुस्लिम महिला अधिनियम - १९८६ की वैधानिकता को चुनौती देते हुए एक याचिका भी दायर की थी। उच्चतम न्यायलय ने दोनों मामलों को आपस में सम्बंधित बताते हुए एक साथ सुनवाई करने का आदेश दिया। एक बार फिर भारतीय राज्य को कटघरे में खड़ा किया गया था, और वो सवाल, जिसने कई बार समाज को असहज किया था, अदालत की दहलीज पर था।
कल छ: महीने के बाद इस मामले का निर्णय आना था। इस निर्णय का एक बड़ी आबादी के हितों पर सीधा प्रभाव पड़ना था, तो इसे लेकर लोगों में काफ़ी उत्सुकता थी। यह निर्णय संसार के सबसे बड़े लोकतंत्र के धर्मनिरपेक्ष ढांचे पर भी जरूर असर डालेगा, यह बात भी लोगो की इस मामले में रूचि का एक बड़ा कारण थी।
जस्टिस अनुराग शेखर ने अपने फैसले में लिखा:
"न्यायलय मुस्लिम महिला अधिनियम - १९८६ के प्रावधानों को संविधान के अनुच्छेद - १४ के विरुध्ध मानते हुए इसे असंवैधानिक घोषित करती है, तथा श्री अब्बास जहूर को यह आदेश देती है की वह श्रीमती नाज़ को प्रतिमाह ३०००/- रुपये गुजारा - भत्ता देंगे और दोनों बेटियों के वयस्क होने तक उनके पालन - पोषण पर आने वाले खर्च का दायित्व भी उठाएंगे। "
नाज़ शिखा के गले लगकर फूट - फूटकर रो पड़ी। महिला संगठनों ने इस फैसले का स्वागत किया, वहीं कई कठमुल्लाओं ने इसे मुस्लिमों के मामलों में हस्तक्षेप मानते हुए आन्दोलन की धमकी दी। राजनीतिक दलों ने भी अपने-२ वोट बैंक को ध्यान में रखते हुए प्रतिकियाएँ दीं।
निस्संदेह इस निर्णय के दूरगामी परिणाम होंगे। मुस्लिम महिलाओं की स्थिति में क्रांतिकारी न सही, पर एक छोटे बदलाव की उम्मीद जरूर जगी है। अभी भी काफी लंबा सफर तय करना है, परन्तु देश के दूसरे सबसे बड़े धार्मिक समुदाय की महिलाओं की जिंदगी के एक अंधेरे हिस्से में रौशनी की एक किरण दिखाई है इस फैसले ने। अगले दिन नाज़ के घर पर दोनों सहेलियां बातें कर रही थीं। शिखा ने नाज़ से कहा - "देखा नाज़! हम लड़े, और हम, जीते।"

Friday, October 9, 2009

वो, कहती मुझको भइया॥

वो,
छोटी सी, प्यारी सी,
वो,
कहती है मुझको, भैया!

हर बात वो अपनी बतलाती,
कभी यूँ ही इठलाती,
वो,
मेरी छोटी बहनिया।

पर जब होता,
मेरा मन उदास,
पोंछ मेरे आंसू,
वो मुझको देती आस,
वो,
मेरी छोटी बहनिया,
वो,
कहती मुझको भइया॥

Tuesday, September 22, 2009

"तिनकों में बिखरा"

ये मेरा व्यक्तिगत अनुभव है। कभी मैं सोचता था कि व्यक्ति कुछ भी कर सकता है। पर ऐसा प्रयास करते हुए मैं शायद ख़ुद भी अकेला हो चुका हूँ।


स्तब्ध,
रह गया था मै,
मेरे स्वप्न महल का आखिरी,
बुर्ज़ ढह चुका था।

दौड़ते दौड़ते शायद मैं,
बहुत दूर चल चुका था;
सोचता था दुनिया को बदल दूँगा
ख़ुद ही बदल दिया जाऊंगा,
पता न था।

सब को सहेजते सहेजते
मैं ही टूट चुका था।
टूटे हुए टुकड़ों,
को मैं जोड़ता था,
पर एक झोंका आया,
मैं तिनकों में बिखर गया था।

Sunday, September 6, 2009

सच का सामना

सच का सामना देखा,
लोग आए, सच का सामना किया,
बदले में पैसे लिए व चले गए।
हैरानी हुई सच को भी बिकते देखकर।
पर कहीं बड़ी हैरानी हुई,
उनके सच को सुनकर।
आपसी संबंधों में विश्वासघात,
अनैतिकता का सच था वह,
जिसे स्वीकार जा रहा था,
करोड़ो लोगों के सामने,
मात्र चंद पैसों के लिए।

पर क्या इतना ही सच है,
जो इस देश में है।
कईयों के सच और भी कटु है,
और भयानक भी,
पर कोई उन पर नही बोलता,
कोई उन पर नही सोचता।

सच - १ :
एक व्यक्ति सुबह उठता है,
घर में खाने को कुछ नही;
निकलता है काम की तलाश में,
पत्नी की आँखों में कुछ सवाल हैं?
वो सवाल है - क्या आज रात तो,
बच्चे फ़िर से भूखे नही सोयेगें।
उसके लिए यही एक सच है।

सच - २:
व्यक्ति बाजार जाता है,
काम की तलाश में।
कहीं पर भी नही कोई काम, उसकी खातिर।
आखिर वो प्रशिक्षित जो न था।
किसान का लड़का जो था,
कभी और कुछ सीखा ही नही,
सिवाय हल चलने के।
सवाल उठता है,
उसके मन में;
आखिर इसके लिए कौन है जिम्मेदार -
वह,
उसके गरीब किसान पिता,
या फिर समाज।
अफ़सोस इसका कोई भी जवाब न था,
न तो उसके पास,
और न ही हमारे पास।
यह भी एक सच है,
जो सेज के विकास के रास्तों से बाहर आता है,
और पूछता है
आखिर समाज का आखिरी इंसान ही क्यूँ देता है,
देश के विकास में अपना बलिदान?

सच - ३:
आखिर वह मजदूरों के समूह
में शामिल हो जाता है।
पुराने उसे डर की नजर से देखते हैं।
एक नया प्रतिद्वंदी जो आ गया,
हर नया उनमें से कुछ की भूख में,
इजाफा ही तो करता है,
यह भी एक सच है,
जिसका सामना हर सुबह,
किसी भी महानगर के हर दूसरे,
चौराहे पर होता है।

सच - ४:
खैर,
एक साहब आते हैं, उन्हें मजदूर चाहिए,
मोलभाव होता है,
सारी न्यूनतम मजदूरी सिमट जाती है,
कहीं कागजों में,
शायद आधी भी हो जाती है।
पल भर को उसके पैर,
लौटने को होते हैं;
आँखों के सामने बच्चे आ जाते हैं,
और कदम फिर रोक लिए जाते हैं,
कहने को कि,
जो भी दे दोगे,
मुझे काम करना है।
पर इस पल में ही,
साहब के मजदूर पूरे हो जाते हैं,
आखिर सबकी आंखों के आगे
वैसा ही दृश्य जो आता है,
बस चेहरे ही तो अलग हैं।
ये भी सच है, जो टीवी पर नही चौराहों पर बिकता है।

सच - ५ :
कई साहब और आते हैं,
पर उसे काम नही मिलता।
फिर कोई नही आता।
भटकता है वो राहों में,
पर कहीं कोई राह मंजिल कि ओर नही.
शाम ढले वो घर लौट पड़ता है,
बच्चे सो चुके हैं,
इंतजार में पिता के,
माँ ने कहा जो था
अभी पानी पी लो, पापा
खाना लेकर आयेंगे।
पत्नी उसे देखती है,
कुछ नही कहती सिवाय इसके,
आज भी भगवान को यही मंजूर था।
उसका मन करता है,
कम से कम बच्चों को लाड़ तो कर ले,
पर डरता है,
वे जाग गए,
तो उनके अनपूछे सवालों का,
क्या जवाब देगा, कि क्यूँ आज भी
उन्हें सिर्फ़ पानी पीकर सोना पड़ा।
उसके लिए यही सबसे बड़ा सच है,
जिसे वो हर दिन जीता है,
और जो सच,
उसे हर रोज़ मारता है,
एक हजार मौत।

सच - ६:
हफ्ते में ३ दिन बच्चों का भूखा सोना,
कितना कड़वा सच है न।
पर क्या सिर्फ़ उसके लिए,

आखिर कोई नही बोलता इस बारे में,
वो भी नही जिन्हें बोलना है,
जिनके पास जिम्मेदारी है ,
आवाज उठाने की,
और लड़ाई को अंजाम तक पहुंचाने की।
पर,
वे तो सोचना भी भूल चुके हैं,
बैठे हैं अपने ड्राइंग-रूम में,
एक टीवी सेट के सामने,
देखने के लिए सच का सामना,
विमुख होकर बाकी सारे,
गैर - मनोरंजक सच से॥

Wednesday, August 19, 2009

अनकहा ख्वाब - १

"दिया"
"जी मम्मी." कहते हुए मानो किसी स्वप्न से लौटी थी वो। आखिर ऐसा क्या था, जो उसे आज कहीं खींच रहा था। वह ख़ुद भी तो हतप्रभ थी। कल तक अपनी सखियों के साथ खेलने वाली लड़की आज अचानक से शांत और गंभीर सी लगने लगी थी। वह सोच रही थी कि उस चेहरे को देखकर ऐसा क्यूँ लगा था उसे, कि मानो वह कोई अपना ही हो। एक अनजान से लड़के ने उसे बदल दिया था।
उधर तनय भी कुछ सोच रहा था, पहली ही नजर में शायद उसे दिया भा सी गई थी। घर जाकर वह सीधे अपने कमरे में जाकर कुछ सोचता रहता है, उसे पता नही कि आज उसके साथ क्या हुआ, पर उसे ये अवश्य पता था कि आज कुछ ऐसा हुआ है, जो शायद पहले कभी नही हुआ।
बात साधारण सी ही थी। अपने एक मित्र के घर पर उसने दिया को देखा था, कुछ आकर्षित सा जरूर हुआ था तनय दिया के प्रति, पर इसमें कुछ भी नया न था। इस उम्र में ऐसा अक्सर होता है, जो तनय ख़ुद भी समझता था। एक चुलबुले, विनोदप्रिय परन्तु जीवन को लेकर गंभीर लड़के कि पहचान थी उसकी। हर लड़के कि तरह थोड़ा घूमना- फिरना और मित्रों के बीच समय बिताना उसका प्रिय शगल था। ऐसे ही एक दिन अचानक उसकी मुलाकात दिया से हुई थी एक दोस्त के घर पर। और यह मुलाकात सब कुछ बदल देने वाली थी उसकी जिंदगी में, यह तो उसे गुमान भी न था।
अगले कुछ दिनों तक उन्होंने एक दूसरे को देखा भी न था, पर उनकी नज़रों में किसी की तलाश थी। एक दिन अपनी सहेलियों के साथ अपने घर लौट रही थी दिया; अचानक उसे राह में कोई नजर आता है, तनय को देखकर उसका चेहरा खिल उठता है, और लबों पर स्वतः ही एक मुस्कान आ जाती है। तनय भी मानो जी उठता है, किसी ख्वाब से। एक चुम्बकीय सा आकर्षण महसूस करता है, वो उस निच्छल मुस्कान में। कुछ पल तो दोनों अपलक एक -दूसरे को देखते हैं, और फिर अपनी राहों पर आगे बढ़ जाते हैं बिना कोई भी शब्द कहे, पर ढेर सारी बातें किए हुए।
अपने कमरे में बैठी हुए और चेहरे को अपनी चुन्नी से ढके हुए, एक षोडशी, किसी कवि कि कल्पना जैसा ही था उसका स्वभाव उस वक्त। अभिज्ञान शाकुंतलम की शकुंतला कि भी तो यही हालत रही होगी कभी दुष्यंत के विचारों में खोये हुए। बिना कुछ भी बोले हुए कुछ शब्द कह दिए गए थे, और शायद सुने भी गए थे। एक सिलसिला सा बन गया था ये, तनय के इंतजार का, मात्र दिया की एक झलक के लिए, और दिया भी तो रोज़ अपनी राहों में उसे ही ढूँढती थी। कितने ही दिन बीत चुके थे, दोनों के मौन को। पर मौन कि भी तो अपनी भाषा होती है, और दोनों को ही पता था कि दूसरे की ऑंखें क्या कहना चाहती हैं, या फिर क्या सुनना चाहती हैं?
एक दिन तनय ने अपनी खामोशी को तोड़ने का फ़ैसला किया। संयोग से दिया भी उस दिन अपनी सहेलियों के साथ ना आकर अकेले ही आई थी। हमेशा कि तरह आज भी दिया ने उसे देखा, उसने अपनी नजरें झुका ली थीं, और उसके होठों पर थी वही मुस्कान, जिसने तनय की जिंदगी में हलचल मचाई हुई थी। तनय उसकी और बढ़ा, उसे अपनी और आता देख दिया के दिल में कुछ हलचल सी हुई, वह वहां से भाग जाना चाहती थी, तनय की इतनी नजदीकी उसे पहली बार महसूस हो रही थी, पर वह मंत्र-मुग्ध सी वही खड़ी रही, उसके दिल को इन्तजार था, तनय के होंठों से निकलने वाले शब्दों का। कुछ पल न तनय कुछ बोल सका, न वह ही वहां से हिल सकी। अचानक तनय के होंठ हिले, उसके मुँह से अपनी तारीफ सुनकर वह फ़िर से मुस्कुरा उठी। उसका चेहरा सुर्ख लाल हो उठा था। "आप बहुत ही खूबसूरत हैं, क्या आप मुझसे दोस्ती करेंगी, मेरा नाम तनय है..." इतना ही कह पाया था तनय। दिया ने भी स्वीकारोक्ति में सर हिलाया था। दोनों और कुछ भी न कह सके, पर आज घर जाते वक़्त वे वो थे ही नहीं, जो कि वे चंद मिनटों पहले थे।

मैंने ख़ुद को बिखरते देखा है.

इस भीड़ में इक इन्सां को,
अकेले चलते देखा है।
सूरज को स्थिर, पृथ्वी को अचला,
सागर को मैंने बहते देखा है।
यह भी देखा है, कि
फूलों ने खिलना छोड़ दिया।
चिड़ियों कि चहचाहट को,
मैंने थमते देखा है॥

जीवन है गतिशील, जीवन परिवर्तनशील,
इस को भी सिध्द होते देखा है।
स्वार्थवश या कभी स्वयमेव,
मैंने,
हर शख्स को, बदलते देखा है॥

आंखों के सपनों को,
यथार्थ कि इन राहों पर,
मैंने दम तोड़ते देखा है।
और शायद;
इन्ही राहों पर कहीं मैंने,
ख़ुद को बिखरते देखा है॥
और शायद;
इन्ही राहों पर कहीं मैंने,
ख़ुद को बिखरते देखा है॥

Wednesday, August 12, 2009

सवेरा आया

आज एक किरण गिरी धरा पर,
सुबह - सुबह।
कली पर पड़ी, कली मुस्कुराई,
और पुष्प बनी।
दूर कहीं एक खग चहचहाया,
उठो मित्र, सवेरा आया॥

हर दिशा हुई प्रफुल्लित, ताज़ा
हवाओं का झोंका आया।
भौरों की गुंजन से, गूंजित हुई दिशाएं;
मन के भीतर एक संगीत उठा,
उठो मित्र, सवेरा आया॥

Monday, August 10, 2009

आज तुम फिर याद आए

आज एक अश्रु बहा आंखों से ,
आज तुम फिर याद आए.
सावन की कुछ बूँदें पड़ी,
तन भीगा, मन गुनगुनाये..
यादों के भंवरों में दिल खोया,
मानो कोई कली मुस्कुराए।
मन मेरा यही पुकारे,
तू फिर लौट के आ जा;
क्यूंकि आज,
क्यूंकि आज तुम फिर याद आए॥
क्यूंकि आज तुम फिर याद आए॥