Sunday, January 31, 2010

ओ! मेरे निष्ठुर प्रेम.....तुम लौट आओ न

फिर से,
       देखना चाहता हूँ,
       तुम्हारी मुस्कान.
फिर से,
       करना चाहता हूँ बातें,
       तुम्हारी चमकीली आँखों से.

फिर से,
       खोना चाहता हूँ,
       तुम्हारे लहराते आँचल में..

सोचा न था,
          कि,
          तुम सिर्फ,
          ख्वाबों में सिमट जाओगी...
सोचा न था,
        छोड़ मुझको अकेला,
        यूँ ही,
       चली जाओगी..

खिड़की पर बैठा,
           देखता हूँ दूर क्षितिज,
होती बेचैन नजर,
          तुझको कहीं न पाकर.
दिन से रात, रात से दिन,
         यूँ ही बीतें जातें हैं,
सोचता हूँ नींद ही उतरे,
        तेरे केशों से गुजरकर,
        कभी, चुपके से आकर..

स्वप्न में ही खिड़की लाँघ,
        जाऊं क्षितिज के पार,
शायद मिलो वही तुम,
       करती मेरा इंत-जार..
फिर से,
        तुमसे बातें करूँ,
        बगैर,
        किसी शब्द के साथ..
उमंगित किसी हिरणी सी,
        प्रफुल्लित किसी मंजरी सी,
        शायद सच में,
        शायद सच में,
        तुम हो उस पार.......

फिर से,
        फिर से आकर वापस,
        मेरे अश्रु, मुझे लौटाओ न.
ओ!
       ओ! मेरे निष्ठुर प्रेम,
       तुम लौट आओ न.

ओ! मेरे निष्ठुर प्रेम,
       तुम लौट आओ न..........