Saturday, December 17, 2011

यूँ ही अकेले

हर शाम;
कितना तन्हा होता है यह मन;
सोचता है,
आखिर कब तक जियोगे यह दोहरा जीवन.

यूँ तो मैं हँसता हूँ, 
होता हूँ जब औरों संग; 
याद नहीं,
कब दिल में घुला था,
कोई ख़ुशी का रंग.

कोहरे की हो धुंध,
या सावन की बारिश;
औ' कभी जलती दोपहर का दिन;
अकेले रहना ही मानो नियति हो,
यूँ ही बीत रहे ये मेरे दिन;

काश कोई समझता,
वो छुपी हुई उदासी,
जिसको हर वक़्त ढक कर रखती है,
मेरी ये हंसी.
वो उदासी जो कभी न आती चेहरे पर,
पर है अंतर्मन में बसी;
अकेले होने पर;
सिर्फ पलकों को भिगोती कभी;

अब तो छोड़ दी उम्मीद भी,
कि होगी कभी इस सूनी धरा पर,
बारिश खुशियों की.
ये बंजर भूमि  है अभिशप्त, 
पाने को बस कुछ बूंदे,
मेरे आंसुओं की. 

क्यूँ रोता ये मन, 
इन व्यर्थ की बातों में;
परदों में रहने की 'पंकज',
अब तो हो गयी आदत हमें.

Sunday, November 20, 2011

मैं, मैं हूँ;

प्रस्तुत कविता कुमारी श्वेता सिंह द्वारा रचित कविता "Who Am I" का हिंदी अनुवाद है. कविता के अनुवाद की अनुमति देने पर मैं उनका आभार प्रकट करता हूँ. 


मैं, मैं हूँ; न कम न ज्यादा

शांत, मानो कोई
सुख अनंत,
बिखरी ताश के ढेर सी,
या, खोज में,
पौराणिक कल्पना, जैसी सम्पूर्णता में.
मैं मैं ही हूँ, न कम न ज्यादा

ताजा हवा के झोंके सी,
रेगिस्तान के धूल सी,
दिल की धड़कने भी, कभी मचाती हैं शोर,
औ' कभी होती शांत किसी गहरी घाटी सी,
मैं, मैं हूँ; न कम न ज्यादा

ठहरी, फिर भी चलती हुई
कभी मुस्काती, कभी रोती,
कभी विजेता, कभी पराजित,
मैं,
मैं हूँ;
न कम न ज्यादा.

Tuesday, June 21, 2011

जब सत्ताएं डरती हैं,

जब सत्ताएं डरती हैं,
   वे जुलम ढहाया करती हैं;
भूखी - सोयी जनता पर,
  लाठी बरसाया करती हैं.

झूठे आरोपों में,
   लोगों को,
   कारागार दिखाया करती है.
प्रशंसा में मुग्ध,
   चापलूसों संग,
   दरबार सजाया करती है.

जब सत्ताएं डरती हैं,
   झूठे डर दिखाया करती हैं;
साम, दाम, दंड, भेद से
  जन को फुसलाया करती हैं.

जन की आवाजों को, अनसुना कर,
   वो शोर बताया करती हैं;
त्रिशंकु की हालत में, पहुँच,
   द्वि-चरित्र दिखाया करती हैं.

औ"
जब उठती है, जनता 
  सत्ताएं डरा करती हैं,
इक गूँज से उस जन की,
  सत्ताएं हिला करती हैं.

जब चलती जनता राजपथ पर,
  सत्ताएं गिरा करती हैं,
जब चलती जनता राजपथ पर,
  सत्ताएं गिरा करती हैं.

Friday, May 20, 2011

कब प्यास बुझेगी इस दिल की

इस रेत से तपते जीवन में,
चाहत है, कुछ बूंदों की;
अतृप्त पड़ी इस भूमि पर,
गीले गेसूं के छीटों की.

सब हरियाली है उजड़ चुकी,
सपनो की धरा वीरान हुई;
तेरे प्रेम की बारिश से, कब
कब प्यास बुझेगी इस दिल की..




Saturday, March 5, 2011

हर सुबह, एक सी क्यूँ न होती?

हर प्रात, उठता है दिवाकर,
औ' निकलता है अपने रथ से,
रोशन करने, इस जहाँ को,
लुटाने किरणों को, अपने कर से ;

निष्पक्ष है वो,
कहीं न करता कमी;
और न,
कहीं ज्यादा देता वो;
हर शाख पर,
हर दिल पर,
समरूप,
खुशियाँ बिखेरता वो.

होता हूँ किसी सुबह खुश;
कभी अनुभव होता,
मानो रात हो कटी,
किसी भयावह स्वप्न में;


उठता है सवाल,
मेरे मन में 'पंकज',
आखिर,
हर सवेरा,
एक सा क्यूँ न होता?
कि आखिर,
हर सवेरा,
एक सा क्यूँ न होता?

Monday, February 14, 2011

वो सुबह, जरूर आएगी.

एक दिन,
ये शाम,
जो होती जा रही है,
अँधेरी;
ढल जायेगी.

एक दिन
ये रात,
गहराती जा रही है,
वो भी,
गुजर जायेगी.

होगी होठों पे मुस्कान,
औ' दिल में उछाह;
एक दिन,
वो सुबह आएगी.
एक दिन,
वो सुबह आएगी.