Monday, December 3, 2012

"फिर से, उसी मोड़ पर"


पुरानी खूबसूरत यादों के ताज़ा होने पर, दिल के अंतरतम में किसी कविता का जन्म होता है. अक्सर ये अनकही ही रह जाती हैं, पर आज कह रहा हूँ, कि तुम समझ सको मुझे.



अन्जाने में ही सही,
आज तुमने,
हरे कर दिए कुछ घाव,
मेरे दिल के.

जाने क्या कहा तुमने,
जो, बैठा जब अकेले;
यादे बहती गयीं यूँ, ,
मानो दर्द का दरिया,
उमड़ आया हो, बिन बारिश ही.

तुमने जो कहा,
झूठ तो था सब मगर;
वैसा ही कुछ था,
एक सच भी मेरा.

चले थे हम, राहों में कभी,
किसी को समझ, अपना हम-कदम;
काश! देख पाते हम,
उनके पैरों की,
हिचकिचाहट,

ना जाने, किस राह,
मुड़ चले वो, अचानक, 
और यह भी न समझा मुनासिब,
एक बार, सलाम-ए-रुखसत तो कहते.

उसी मोड़ पर खड़े,
ताकते रहे उसी राह,
दिन, महीनो,  बरसों;
शायद कभी तुम ........ हाँ शायद!!

औ" आख़िर चल ही दिए,
छोड़कर, उस मोड़ को,
सीने में दफ़न करके, 
उन यादों को,
वो साथ में चले कुछ कदमों को.

आज तुमने फिर से खोल दिया,
पर्दों को, जिनसे ढका था,
मेरे ख्वाबों का वो हिस्सा;
छोड़ दिया वापस तुमने,
मुझे उसी मोड़ पर, उन्ही राहों पर,
जहाँ कभी वो रुखसत हुए थे,
बिना अलविदा कहे.

Wednesday, October 24, 2012

छोटी सी गुजारिश है तुमसे

आज,
अचानक से,
फिर देखा तुम्हे,
दिल की गहराइयों में,
फिर महसूस,
किया तुम्हे


ज्यादा कुछ तो,
नहीं बदली तुम,
सिवाय कुछ, extra 5 किलो के.
वही मुस्कान, 

वही लम्बे केश तुम्हारे;
कभी होते थे,  दीवाने जिसके.

याद किया,
वह साहस, वह हिम्मत,
जब कहे थे,
तुमसे हमने, पहले शब्द

बटोरकर वही साहस,
तुम्हारे पास तक आये,
पर जुबान से वो शब्द,
निकल ही न पाए.

गुस्ताखियों को भुला,
हमें भले ही,
फिर दोस्त न बनाइये;
एक गुजारिश है,
ये सेहत कैसे बनायी,
चलिए यही बताइए.

ये सेहत कैसे बनायी,
चलिए यही बताइए.

Saturday, August 25, 2012

यह कैसा सफ़र

चलते चलते जो हुई, जलन पावों में,
देखा, एक छाला था, निकल आया;
मलहम के लिए, जो हाथ बढ़ाया,
कोई भी तो उसे, देने न आया;

राह से नज़र हटाई, चहुँओर दौड़ाई,
उस सूने इलाके में, कौन नज़र आया;
इसाँ तो दूर, एक दरख्त भी, न पड़ा दिखाई,
चारो ओर था, तो बस, कड़ी धूप का साया.

इस सन्नाटे में, किससे था डर का एहसास,
दिल मेरा तो, मेरे ही मौन से, था घबराया;
कुछ अलग करने की, थी मेरी कोशिश,
फिर यह, अलगाव लोगों से, क्यूँ आया;

तमाम उम्र, इस सफ़र में रहा भागता,
आखिर मैं यह, कहाँ निकल आया,
पूरे सफ़र में कम, होते रहे हमराही,
कौन सी यह राह, जिसे मैंने अपनाया. 

स्तब्ध, वहीँ रहा सोचता, घंटों,
यह कैसा है मुकाम, जिसे मैंने पाया;

तूने पाया, अपने सपनों को 'पंकज',
झूठ ही सही, दिल को, यही समझाया;
झूठ ही सही, दिल को, यही समझाया.

Sunday, July 1, 2012

ओ पुरवाई, ओ पुरवाई;

ओ पुरवाई, ओ पुरवाई;
अच्छा हुआ, जो तू आई.
पर तू क्यूँ अकेले आई;
बरखा को क्यूँ छोड़ आई.

ओ पुरवाई, अब वापस जा;
काले मेघ और बरसा ला;
सारे मिलकर उधम मचाना,
हम सब को फिर तुम नहलाना.

(चित्र साभार - आशीष पटेल) 

Sunday, March 4, 2012

ओ खुशी! तू रहती है कहाँ?

ओ खुशी! 
तू रहती है कहाँ?

जो रहती तू महलों के भीतर,
क्यूँ तजता सिद्धार्थ तुझे;

जो रहती तू स्वर्ण के मध्य,
क्यूँ दिखते अमीरों के चेहरे,
बनावटी मुस्कान से भरे;

जो रहती तू तलवारों में,
इंसान की इंसान पर ही विजय में;
क्यूँ लगते विजेता क्रूर से,
बजाय के हँसते हुए;

गर शरण मिलती तुझे,
किसी गरीब की कुटी में,
क्यूँ कोई तुझे त्याग;
बांधता रस्सी को छत से,
और देता प्राण झूल उसपे;

हर पल तलाशता फिरता तुझे,
न मिल सका लेकिन,
कभी नजदीक से भी;

अब तू ही बता,
किस राह है तेरा निवास;
जिस ओर जाकर तलाशूँ तुझे.

-खुशी की खोज में भटकता एक पथिक. 

Wednesday, February 22, 2012

बंदी

बुनते हैं ज़ाल,
हम खुद के चारों ओर;
जानते हुए यह,
कि मुमकिन न होगा,
इससे निकलना. 

हर दिन जोड़ते हैं,
एक नया तन्तु उसमे,
और पूरे होने पर,
छटपटाते हैं,
बाहर निकलने को उससे.

Wednesday, February 8, 2012

हमारा मिलना

ख्वाब थी तुम,
या फिर हकीकत;
मैं कभी मिला तुमसे,
या वो था बस, मन का भरम;
जो है आज भी, बसा मन में,
और देता,
ढेरों मीठे एहसास.
क्या वो सच था?
या वो था बस, मन का भरम.

वो तेरे हाथों का स्पर्श,
जो आज भी, सिरहन देता;
या, 
बसंत के नव पुष्पित, फूलों सा मुस्काना;
और कभी,
यूँ ही किसी बात पर,
नजरों को झुकाना;
क्या वो सच था?
या वो था बस, मन का भरम.

न जाने कितने,
ख्वाब बुनता हूँ आज भी;
तुम ही होती हो,
उस हर इक ख्वाब में,
और हर एहसास में.
फागुन की हवा,
छूती जब तन को,
क्यूँ याद आता है,
तेरा आँचल.
जब गुजरता हूँ, उन राहों से;
जहाँ साथ तय किये थे, हमने फासले;
और वादे किये थे, कभी न जुदा होने के.
आंसू खुद ही अपनी राहें है खोजते.

हमारा मिलना,
क्या वो सच था?
या वो था बस, मन का भरम.