Saturday, August 25, 2012

यह कैसा सफ़र

चलते चलते जो हुई, जलन पावों में,
देखा, एक छाला था, निकल आया;
मलहम के लिए, जो हाथ बढ़ाया,
कोई भी तो उसे, देने न आया;

राह से नज़र हटाई, चहुँओर दौड़ाई,
उस सूने इलाके में, कौन नज़र आया;
इसाँ तो दूर, एक दरख्त भी, न पड़ा दिखाई,
चारो ओर था, तो बस, कड़ी धूप का साया.

इस सन्नाटे में, किससे था डर का एहसास,
दिल मेरा तो, मेरे ही मौन से, था घबराया;
कुछ अलग करने की, थी मेरी कोशिश,
फिर यह, अलगाव लोगों से, क्यूँ आया;

तमाम उम्र, इस सफ़र में रहा भागता,
आखिर मैं यह, कहाँ निकल आया,
पूरे सफ़र में कम, होते रहे हमराही,
कौन सी यह राह, जिसे मैंने अपनाया. 

स्तब्ध, वहीँ रहा सोचता, घंटों,
यह कैसा है मुकाम, जिसे मैंने पाया;

तूने पाया, अपने सपनों को 'पंकज',
झूठ ही सही, दिल को, यही समझाया;
झूठ ही सही, दिल को, यही समझाया.