Tuesday, October 27, 2015

मुक्ति : यक्ष प्रश्न


बैठे बैठे कुछ समझ नहीं आ रहा था तो यमुना के घाट पर चला गया. वहीं क्यों? नहीं पता. बस अक्सर होता यही है कि जब कुछ समझ नहीं आता तो वहीं चला जाता हूँ.

शाम का वक़्त था और मछुआरे अपना जाल समेट रहे थे. एक अजीब सी मस्ती थी उन लोगों में. वो मछलियों को जाल से ऐसे निकाल रहे थे मानो वो खिलौना हों. इतना तक ध्यान नहीं था उनको कि कुछ जिंदा मछलियाँ उनके हाथों से वापस कूदकर पानी में चली जाती थीं. बाकी बची मछलियाँ एक टोकरी में डाल दी जा रही थीं, बाजार में बिकने के लिए.

काफ़ी समय तक ये खेल चलता रहा. सब मछुआरे चले गये. सूरज अभी भी लाल होकर क्षितिज पर पड़ा हुआ था अलसाया सा. मेरी तरह उसे भी कहीं जाने की जल्दी नहीं थी. मैं एकटक उसे देख रहा था कि उसमे मुझे मेरा  प्रतिबिंब नज़र आया. और मेरा वो बिंब मुझसे ही सवाल कर रहा था, वैसे ही जैसे बेताल ने विक्रम से किए थे. "बोल राजा! जाल में फँसने के बाद कौन सी मछलियाँ मुक्त हुईं, वो जो वापस पानी में चली गयीं, या वो जो टोकरी में गयीं. और अगर तुमने इसका सही जवाब नही दिया तो तुम्हारा सर टुकड़े टुकड़े हो जाएगा"

मैं अभी तक उसके इस प्रश्न का जवाब ढूंड़ रहा हूँ. आपको समझ आये तो बताइयेगा.