Wednesday, September 7, 2016

जीवन और मृत्यु

जीवन को जानना है तो सबसे पहले मृत्यु को जानो। किसी की चिता जलते तो जरूर देखी होगी, नहीं देखी है तो एक बार जाकर देखना. उस पर जो लेटा हुआ एक इन्सान दिख रहा है न, वो और कोई नहीं है, तुम ही हो. उसके थोड़ा ऊपर उठकर देखोगे तो जो आग की लपटे दिख रही हैं, वो तुम्हारी अनुभूति है, और इन सबसे ऊपर जो काला धुँआँ देख रहे हो, वही जीवन है. 

Tuesday, August 30, 2016

जंजीर

मालिक छुट्टी के दिन घर पर बैठा ऑफिस का काम निपटा रहा था.उसकी नजर उसके पालतू कुत्ते पर पड़ी. प्यार भरी नज़रों से उसे देखने हुए उसने सोचा, "कितना अच्छा है ये, कभी भागने की नहीं सोचता."
कुत्ता भी मालिक को उतनी ही प्यार भरी नजरो से देखते हुए सोच रहा था, "इसके गले में तो जंजीर भी नहीं दिखती"

Monday, August 29, 2016

युद्ध-यंत्र

युद्ध का 18वाँ दिन समाप्त हो चुका था, पांडवों को विजय प्राप्त हो चुकी थी. दोनों पक्षों की अधिकाँश सेना का अंत हो चुका था. कृष्ण पांडवों को उनके शिविर में छोड़कर युद्धभूमि से लौट रहे थे. उनको एक सैनिक दिखाई पड़ा. वो मूर्तिवत एक जगह पर खड़ा होकर देख रहा था, चारों ओर बिखरी लाशें और उन पर मंडराते गिद्द और तमाम मुर्दाखोर।

कृष्ण के मन में उत्सुकता जगी कि ये कौन सैनिक है जो इतने महान युद्ध में विजय हासिल करने के बाद उसका जश्न मनाने के बजाय ऐसे युद्धभूमि पर खड़ा है. वो उससे बात करने को पहुँच गए.

"सैनिक! हम विजयी हुए, तुम्हारी वीरता काम आयी, इस विजय का श्रेय तुमको युगों युगों तक मिलेगा" कृष्ण ने कहा.
सैनिक ने कोई जवाब नहीं दिया, यहाँ तक कि पलकें भी न झपकायीं.
"किस देश से आये हो तुम, सैनिक?" कृष्ण ने अगला सवाल पूछा.
"सिंधु-सौवीर से", इस बार उसने जवाब दिया.
"तुम पांडवों की ओर से लड़े?"
"पांडव कौन हैं?" जवाब आया
"तो क्या तुम कौरवों की ओर से थे?" ये कहते हुए कृष्ण का हाथ अपने में लटकी कटार की ओर बढ़ा. युद्ध समाप्त हो चुका था और शस्त्र न उठाने की प्रतिज्ञा भी.
"कौरव कौन हैं?" सैनिक ने उसी भाव से जवाब दिया.
"तुम कौन हो? क्षत्रिय? शूद्र? ब्राह्मण? या आजीविका से आकर्षित होकर सैनिक बने कोई वैश्य?" पहली बार कृष्ण किसी की आखों को और प्रवित्ति को पढ़ने में असमर्थ रहे थे और अब उस सैनिक के बारे में सब कुछ जानने की उनकी उत्कंठा बढ़ चुकी थी.
सैनिक वैसे ही उनको देखता रहा, अब तक उसने एक बार भी पलक नहीं झपकायीं थी. उसी तरह अपलक कृष्ण को देखते हुए उसने कहा,
"मैं युद्ध-यंत्र हूँ".
कृष्ण उसकी आँखों में देखने से अब खुद को असहज महसूस करने लगे थे. फिर भी एक सवाल और पूछ ही लिया युग के सबसे बड़े कर्मयोगी ने,
"क्या कर्म है तुम्हारा"
"मृत्यु" सैनिक ने अपलक कृष्ण की आखों में देखते हुआ कहा. उसकी आवाज किसी और लोक से आ रही थी.
रणभूमि से सारे शव गायब हो गए और उनकी जगह वहां पर तीन शव पड़े थे. कर्म, ज्ञान और भक्ति योग के. चारों ओर मृत्यु का अट्टहास गूँज रहा था.

Tuesday, August 23, 2016

पिस्तौल

धांय धांय धांय!
उसने जेब से पिस्तौल निकाली और गोली चला दी. उस बच्चे का चोर-पुलिस पसंदीदा खेल था. पर उसको चोर को पकड़ना पसंद नहीं था, जैसे ही वो उसके हाथ लगता, वो बस पिस्तौल निकालता था और गोली चला देता था.

वह बड़ा हुआ; अब वह गोली नहीं चलाता था. अब वह सिर्फ पकड़ा करता था, अपने आस पास की चीजों को, अपने रिश्तों को, अपने सपनों को. जितना वो उनको पकड़ने की कोशिश करता था, उतना ही वो चीजें उससे दूर होती जा रही थीं.

इस पकड़म पकड़ाई के खेल से उसे ऊब होने लगी थी, और उसे बचपन का वो चोर-पुलिस का खेल याद आया, जब वो चोर को पकड़ता नहीं था, सिर्फ निपटाता था और खुश हो जाता था.  बस फिर क्या था, उसने अपनी जेब से पिस्तौल निकाली और दुनिया को गोली मार दी.
धांय धांय धांय!

Wednesday, February 3, 2016

क्रान्तिकारी : जिंदाबाद



वे क्रान्तिकारी थे, बहुत बड़े वाले. वे उस शहर में रहते थे, जिसका क्रान्ति के नाम पर बेड़ा गर्क किया जा चुका था; कानपुर से. पर चूँकि वो चाहते थे कि क्रान्ति सिर्फ कानपुर को तबाह न करे, उन्होने क्रान्तिकारी किस्म की कवितायें लिखनी और नाटक नौटंकी करनी शुरु कर दी. उनकी क्रान्तिकारिता के 99 कविताओं तक पहुँचने के बाद उन्होने निर्णय लिया कि 99% लोगों को 1% लोगों के खिलाफ संघर्ष करना है, और उस 1% को नीचा दिखाने के लिए उन्होने 99 कविताओं की क्रान्तिकारी किताब छाप मारी. वह किताब जबर हिट रही और उसे हर उस शख्स ने पढ़ा जिसे उन्होने वो किताब मुफ्त में सप्रेम भेंट की.


उनकी क्रान्तिकारिता बेहद ही उच्च मार्का थी. अक्सर वो लिखते थे, कि वो फलाने और ढेमाके को मारके (रहिमाने को मारने के बारे में वो सेकुलर थे) फाँसी पर चढ़ जायेंगे; पर होता यही था कि वो अधिक से अधिक शुक्लागंज का पुल चढ़के उन्नाव जा पाते थे क्रान्तिकारी किस्म का नाटक करने. पर लोगों को मारने के प्रति उनका प्रेम इतना ज्यादा था कि यूँ तो उन्होने सारे जीवन में मक्खी के अलावा कुछ नहीं मारा, पर "मैं याकूब हूँ" की तख्ती टांगकर उन्होने ये साबित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी कि वो याकूब जैसे दमित वर्ग के हर [हत्यारे] शख्स के साथ हैं. और यह दिखाने के लिए कि वो फांसी के भी साथ हैं, उन्होने एक रैली में हिस्सा लिया, गले में " कमलेश तिवारी को फांसी दो" की तख्ती टांगकर.

इस प्रकार की क्रान्तिकारी गतिविधियों में भाग लेते लेते वो खुद को लेनिन समझने लगे और ऐसी ही एक क्रान्तिकारी नौटंकी करते वक्त यूपी पुलिस ने उनको धर लिया. उनकी बदकिस्मती से उनके सिर के केश औसत से थोड़े छोटे थे, वरना उनका चित्र भी आज तक के "बहुत क्रान्तिकारी"  समाचार "यूपी पुलिस ने महिला रंगकर्मी को धरा" समाचार में आना तय था.

एक दिन क्रान्ति जरूर आयेगी. जिंदाबाद.

नोट - ऊपर लिखी बातें कुछ सत्य घटनाओं पर, पर अधिकतर मेरी कल्पना पर आधारित हैं. बाकी आपकी कल्पना.

Saturday, January 23, 2016

Had they never given me 'the book'



When I was five,
they gave me a book,
which contains stories,
which they said, are true;

Stories, which are told by,
a so-called god,
an imaginary friend of them,
whom I've never seen;
and who is just telling,
how others are mean.

I learned from the book,
How great are we;
And who are kafirs;
Should they be killled.

I didn’t know,
The boy next door,
reading a book,
And learning a new thing;
That just touching someone,
could be a great sin.

Another friend of mine,
sitting in a church,
Learning from a priest,
That I’d be burnt;

That I would be burnt,
by an all-loving god,
Who supposedly sent his son,
And whom, I forgot.

We learned about girls,
They are inferiors,
So the god decided to chose,
What should they wear.

As we three were friends,
We grew up together,
But learned from the book,
Only I’m the superior.

And one day, it happened,
Our god faced threats,
Taking stones into hands,
I went to the streets.

Someone came and told,
That I’m a communal,
I didn’t understood what he meant,
Coz’ this is what they made me learn.

Had they never given me,
'the book', that day.
I’d have been,
A human being today.
I’d have been,
A human being today.