Saturday, December 17, 2011

यूँ ही अकेले

हर शाम;
कितना तन्हा होता है यह मन;
सोचता है,
आखिर कब तक जियोगे यह दोहरा जीवन.

यूँ तो मैं हँसता हूँ, 
होता हूँ जब औरों संग; 
याद नहीं,
कब दिल में घुला था,
कोई ख़ुशी का रंग.

कोहरे की हो धुंध,
या सावन की बारिश;
औ' कभी जलती दोपहर का दिन;
अकेले रहना ही मानो नियति हो,
यूँ ही बीत रहे ये मेरे दिन;

काश कोई समझता,
वो छुपी हुई उदासी,
जिसको हर वक़्त ढक कर रखती है,
मेरी ये हंसी.
वो उदासी जो कभी न आती चेहरे पर,
पर है अंतर्मन में बसी;
अकेले होने पर;
सिर्फ पलकों को भिगोती कभी;

अब तो छोड़ दी उम्मीद भी,
कि होगी कभी इस सूनी धरा पर,
बारिश खुशियों की.
ये बंजर भूमि  है अभिशप्त, 
पाने को बस कुछ बूंदे,
मेरे आंसुओं की. 

क्यूँ रोता ये मन, 
इन व्यर्थ की बातों में;
परदों में रहने की 'पंकज',
अब तो हो गयी आदत हमें.