Friday, October 23, 2009

आवाज़ें, जिन्हें सुना नही गया

"शिखा"
"हाँ नाज़, बोलो क्या कहना है तुम्हे, आज कुछ परेशान लग रही हो।"
नाज़ और शिखा एक दूसरे की कट्टर दोस्त थीं। कट्टर इसलिए क्यूंकि बचपन से आज तक किसी ने भी उनको एक-दूसरे के बिना नही देखा था। स्कूल की पढाई पूरी कर दोनों अब दिल्ली के एक प्रतिष्ठित कॉलेज में ला की स्टुडेंट थीं। पढाई में तो दोनों अव्वल थी हीं, साथ ही साथ सामाजिक विषयों पर उनकी रूचि देखते ही बनती थी। महिला अधिकारों और उससे जुड़े कानूनों पर वे अक्सर घंटों चर्चा किया करती थीं.
शिखा ने फिर पूछा कि आखिर आज वो इतनी असहज क्यूँ लग रही है। "आज एक विषय पर केस स्टडी बना रही थी, पता नही पर कुछ अजीब सा लग रहा है ", नाज़ ने जवाब दिया। " तुमने भी मुस्लिम महिला अधिनियम, १९८६ पढा ही होगा। शिखा! हम मुस्लिम महिलाओं के अधिकार विवाह और तलाक जैसे मामलों में इतने सीमित क्यूँ होते हैं?"
नाज़ अपनी ही रौ में बोलती गई,"तुम्हे शाह-बनो केस तो याद होगा न। जब माननीय उच्चतम न्यायलय ने तलाक़ के बाद उसको गुजारा - भत्ता दिए जाने का आदेश दिया था। पर तब हमारे ही धर्म के कुछ तथाकथित पहरेदारों नें इस आदेश को मज़हब - विरुध्ध बताया था। और तो और करोड़ों मुस्लिम महिलाओं के भविष्य को अंधकार में डालने वाला एक काला कानून भी इस देश कि संसद में पारित किया गया था, बजाय ये ख्याल किए बिना कि मुस्लिम समाज का मतलब सिर्फ़ मौलवी नही है, उस समाज में महिलाएं और बच्चे भी आते हैं।"
इसके बाद काफ़ी देर तक वो दोनों इस बात पर चर्चा करती रहीं. ये बातें करते वक्त उन दोनों लड़कियों को न पता था कि घर कि छत की बहस का यह विषय भविष्य में फिर से कभी उनके सामने आकर खड़ा हो जाएगा।
(१० साल बाद)....
उन दोनों सहेलियों की जिन्दगी काफ़ी बदल चुकी थी. जहाँ शिखा वकालत की पढाई पूरी करके वकालत की प्रैक्टिस कर रही थी; वहीँ नाज़ की जिंदगी ने एक अलग ही मोड़ ले लिया था। पढाई के ही दौरान एक कॉलेज के प्रोफेसर मोहम्मद अकरम की इस लाडली बेटी का निकाह शहर के एक बड़े व्यवसायी मोहसिन ज़हूर के पुत्र अब्बास जहूर के साथ हो गया, और महिला अधिकारों की इस बड़ी समर्थक को अपनी पढाई बीच में ही छोड़नी पड़ी थी. कुछ साल तो काफी अच्छे से बीते और इस दरम्यान नाज़ दो प्यारी बेटियों की माँ भी बन चुकी थी। हांलाकि इस अवधि में प्रोफेसर अकरम का इंतकाल हो चुका था। पिछले कुछ दिनों से नाज़ और अब्बास के बीच काफी तनाव हो गया था, और एक दिन अब्बास ने नाज़ को तलाक़ दे दिया। अपनी बेटियों को लेकर नाज़ वापस अपने पीहर आ गई। पता लगते ही सबसे पहले शिखा ही उससे मिलने आई थी, और दस सालों के बाद वे दोनों फ़िर से उसी छत पर खड़ी थीं, उसी विषय पर बात करने के लिए, जिस पर कभी उन्होंने चर्चा की थी। अन्तर बस इतना था कि आज उस बहस में पात्र और कोई नही, ख़ुद नाज़ थी।
शिखा, जिसे अब तक सामाजिक अधिकारों से जुड़े कई मुद्दों पर केस लड़ने कि वजह से काफ़ी ख्याति मिल चुकी थी, उसने नाज़ को उसके अधिकार दिलाने का भरोसा दिलाया। शिखा ने एक और आपराधिक दंड संहिता-१२५ के तहत नाज़ और उसकी बेटियों के लिए गुजारा - भत्ता की मांग करते हुए मुकदमा दर्ज कराया, वहीं उसने उच्चतम न्यायलय में मुस्लिम महिला अधिनियम - १९८६ की वैधानिकता को चुनौती देते हुए एक याचिका भी दायर की थी। उच्चतम न्यायलय ने दोनों मामलों को आपस में सम्बंधित बताते हुए एक साथ सुनवाई करने का आदेश दिया। एक बार फिर भारतीय राज्य को कटघरे में खड़ा किया गया था, और वो सवाल, जिसने कई बार समाज को असहज किया था, अदालत की दहलीज पर था।
कल छ: महीने के बाद इस मामले का निर्णय आना था। इस निर्णय का एक बड़ी आबादी के हितों पर सीधा प्रभाव पड़ना था, तो इसे लेकर लोगों में काफ़ी उत्सुकता थी। यह निर्णय संसार के सबसे बड़े लोकतंत्र के धर्मनिरपेक्ष ढांचे पर भी जरूर असर डालेगा, यह बात भी लोगो की इस मामले में रूचि का एक बड़ा कारण थी।
जस्टिस अनुराग शेखर ने अपने फैसले में लिखा:
"न्यायलय मुस्लिम महिला अधिनियम - १९८६ के प्रावधानों को संविधान के अनुच्छेद - १४ के विरुध्ध मानते हुए इसे असंवैधानिक घोषित करती है, तथा श्री अब्बास जहूर को यह आदेश देती है की वह श्रीमती नाज़ को प्रतिमाह ३०००/- रुपये गुजारा - भत्ता देंगे और दोनों बेटियों के वयस्क होने तक उनके पालन - पोषण पर आने वाले खर्च का दायित्व भी उठाएंगे। "
नाज़ शिखा के गले लगकर फूट - फूटकर रो पड़ी। महिला संगठनों ने इस फैसले का स्वागत किया, वहीं कई कठमुल्लाओं ने इसे मुस्लिमों के मामलों में हस्तक्षेप मानते हुए आन्दोलन की धमकी दी। राजनीतिक दलों ने भी अपने-२ वोट बैंक को ध्यान में रखते हुए प्रतिकियाएँ दीं।
निस्संदेह इस निर्णय के दूरगामी परिणाम होंगे। मुस्लिम महिलाओं की स्थिति में क्रांतिकारी न सही, पर एक छोटे बदलाव की उम्मीद जरूर जगी है। अभी भी काफी लंबा सफर तय करना है, परन्तु देश के दूसरे सबसे बड़े धार्मिक समुदाय की महिलाओं की जिंदगी के एक अंधेरे हिस्से में रौशनी की एक किरण दिखाई है इस फैसले ने। अगले दिन नाज़ के घर पर दोनों सहेलियां बातें कर रही थीं। शिखा ने नाज़ से कहा - "देखा नाज़! हम लड़े, और हम, जीते।"

2 comments:

  1. ek din aisa aayega jab duniay se wahabivad khatam ho jayega........tab ek udaar islaam ka uday hoga.tab tak humein musalmaano ke ek varg ko prabuddh aur sashakt banaye rakhna hoga jo nayee paristhitiyon ka netritva karenge

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  2. सर आपके लेख पर टिपण्णी करना तो छोटे मुह बड़ी बात हो जाएगी बस ये बताईये की आप कंप्यूटर में हिंदी कैसे लिखते हैं . मुझे तो गूगल ट्रांस्लितेराटर का इस्तेमाल करना पड़ता है जो उतना कारगर नहीं है . क्या आपको हिंदी टंकण आता है.
    नमन

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