Tuesday, November 12, 2013

थोड़ा सा प्रेम

क्या पता न था मुझे,
कि यह होना है,
फिर भी;

फिर भी,
मैं ना रोक सका,
और पहुँचायी चोट खुद को,
एक बार फिर से;

क्या पहले ना हुआ था,
ऐसा मेरे साथ,
फिर भी,
हर बार;

फिर भी, हर बार;
जाने क्यूं, 
खोता हूँ, अपना दिल;

और आँसुओं,
से भीगता है,
ये दिल,
फिर से।

क्या प्रत्युत्तर हो सकते हैं,
उपेक्षा, घृणा या धोखा,
उस भावना के,
प्रेम, स्नेह;

क्या सोचना है गलत,
प्रेम के बदले,
मिले प्रेम;
उतना ना सही,
थोड़ा सा ही।

जब मिला तुमसे,
भूल गया था, कुछ पल को,
कि अभी तो टूटा है,
दिल मेरा;

फिर भी,
डूब गया, आँखों में तुम्हारी,
बातों में तुम्हारी.

कितना था भरोसा, मुझे 
तुम पर;
काश! उतना भरोसा होता,
तुमको भी।

क्यूं हो गयी यूं दूर,
अचानक,
बताया तक नहीं,
वजह इस बेरुखी की;
शायद
दे ना सका मैं, वो
भरोसा तुमको,
जिसकी थी तुमको चाह।

ढूंढा तुमने वह विश्वास,
किसी और में;
हमारे रिश्ते पर,
आयी ये छाया,
किसकी।

हमेशा की तरह,
रहा अकेला,
मैं,
फिर से।

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