इस भीड़ में इक इन्सां को,
अकेले चलते देखा है।
सूरज को स्थिर, पृथ्वी को अचला,
सागर को मैंने बहते देखा है।
यह भी देखा है, कि
फूलों ने खिलना छोड़ दिया।
चिड़ियों कि चहचाहट को,
मैंने थमते देखा है॥
जीवन है गतिशील, जीवन परिवर्तनशील,
इस को भी सिध्द होते देखा है।
स्वार्थवश या कभी स्वयमेव,
मैंने,
हर शख्स को, बदलते देखा है॥
आंखों के सपनों को,
यथार्थ कि इन राहों पर,
मैंने दम तोड़ते देखा है।
और शायद;
इन्ही राहों पर कहीं मैंने,
ख़ुद को बिखरते देखा है॥
और शायद;
इन्ही राहों पर कहीं मैंने,
ख़ुद को बिखरते देखा है॥
वाह! पंकज वर्मा खूब लिखा ....
ReplyDeleteइसी के साथ स्वागत है हिन्दी ब्लोगिंग में
www.ravishankarsharma.blogspot.com
बढ़िया कविता है वर्मा जी...निरंतर लिखते रहें
ReplyDeletewow! bahut achchhi hai... abki thodee aur optimistic likhna ..(sorry mere paas hindi font nai hai)...:)
ReplyDeleteबहुत खूब
ReplyDeletenice poem pankaj..tune khud likhi hai ??
ReplyDeleteif so then u are GREAT......really u are ....
wah! ji wah! narayan narayan
ReplyDeleteati sunder sir ji
ReplyDeletebahut hi badhiya hai...
bahut hi aachi likhi hai.. aise hi likhte raho aap..
ReplyDeleteबहुत अच्छा लिखा है. जारी रहें.
ReplyDelete---
उल्टा तीर पर पूरे अगस्त भर आज़ादी का जश्न "एक चिट्ठी देश के नाम लिखकर" मनाइए- बस इस अगस्त तक. आपकी चिट्ठी २९ अगस्त ०९ तक हमें आपकी तस्वीर व संक्षिप्त परिचय के साथ भेज दीजिये. [उल्टा तीर] please visit: ultateer.blogspot.com/
Wah bhai pankaj tumne to ek aisa teer mara hai hindi kavita ko ko ki vo tumhe zaroor naman karegi..
ReplyDeletewah-2
क्या बात है
ReplyDeleteबहुत खूब