ओ खुशी!
तू रहती है कहाँ?
जो रहती तू महलों के भीतर,
क्यूँ तजता सिद्धार्थ तुझे;
जो रहती तू स्वर्ण के मध्य,
क्यूँ दिखते अमीरों के चेहरे,
बनावटी मुस्कान से भरे;
जो रहती तू तलवारों में,
इंसान की इंसान पर ही विजय में;
क्यूँ लगते विजेता क्रूर से,
बजाय के हँसते हुए;
गर शरण मिलती तुझे,
किसी गरीब की कुटी में,
क्यूँ कोई तुझे त्याग;
बांधता रस्सी को छत से,
और देता प्राण झूल उसपे;
हर पल तलाशता फिरता तुझे,
न मिल सका लेकिन,
कभी नजदीक से भी;
अब तू ही बता,
किस राह है तेरा निवास;
जिस ओर जाकर तलाशूँ तुझे.
-खुशी की खोज में भटकता एक पथिक.
यहाँ वहाँ नहीं..............
ReplyDeleteअपने भीतर तलाशिये, खुशी वहीँ कहीं छिपी बैठी है......
सुन्दर रचना
अनु