पतझड़ का मौसम;
पेड़ों से गिरते पत्ते,
पीले, लाल, भूरे,
सूखे से पत्ते;
पत्ता पत्ता,
मैं भी झर रहा,
उनके जैसे;
हल्की हवा भी,
उड़ा लेती उनको,
और ले जाती,
किसी, और ही दुनिया में,
डालों से टूटे पत्ते,
और वो,
जो बिखरे मुझसे।
सागर की खारी बूँदे,
होड़ लेते उनसे मेरे आँसू,
अस्तित्व उसका घुल जाता,मिल जाता है,
सागर में;
मैं भी घुल गया हूँ,
उस विशाल जलद में।
दोनो हाथ फैलाये,
मैं,
खड़ा हूँ,
रेत के टीले पर;
रेतीली आंधियाँ,
होती हैं कितनी खुश्क,
छा जाता है अंधकार,
रेत के बादलों का,
और जब छँटता वो;
गुम हो जाता,
मैं साथ उसके।
अब मैं प्रकृति हूँ,
प्रकृति मुझमे;
घुल गया, अपना अस्तित्व मिटा,
वापस से प्रकृति में।।
behtareen sir !
ReplyDeleteThanku Kinksha :)
ReplyDeleteaccha likha hai :)
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