Tuesday, December 24, 2013

सुबह कभी ना हुई

एक दिन...
एक दिन सुबह हुई, पर सुबह ना हुई,
एक दिन..
एक दिन पक्षी चहचहाये, पर उनसे स्वर न आये।

एक दिन..
एक दिन फूल खिले, पर बहार न आई।
एक दिन..
एक दिन धूप तो हुई, पर अंधेरा न मिटा.

एक दिन..
तितली ने उड़ना छोड़ दिया,
उस दिन...
उस दिन नदी ने बहना छोड़ दिया,

उस दिन...
उस दिन, रंग स्याह से थे,
उस दिन...
उस दिन, सारा दिन रात सी थी।

उस रात..
उस रात चाँद पूरा निकला, पर चांदनी न हुई।
उस रात और उस दिन..
उस रात और उस दिन, बस तुम साथ न थी।


और फिर,
और फिर, बहार कभी ना आई;
और फिर,  चांदनी क़भी ना खिली,
और फिर,
और फिर,  सुबह कभी ना हुई।

Sunday, December 22, 2013

सदाबहार

उसके आँगन में एक छोटा सा पौधा था, सदाबहार का. उसको पता नहीं था कि कब उसे अच्छा लगने लगा था उस पौधे के पास बैठना। जब भी वो खुश होती, उस सदाबहार के पौधे के पास जाती और वो पौधा उसे ढेरो फूल देता था; और उन फूलों को हाथ में लेकर उसके होंठों पर एक मुस्कान आ जाती थी। उसकी मुस्कान देखकर सदाबहार का वो नन्हा सा पौधा और भी खिल उठता था; अगले दिन, वह भी इन्तजार करता था कि कब वो आये और वह उसे अपने फूल दे सके.
एक दिन वो बाजार से गुजर रही थी, उसने एक पौधों की दुकान में एक बड़े से फूल को देखा; उसने उस फूल के पौधे को खरीद लिया और उसे एक गमले में लगाकर अपने कमरे के बाहर छज्जे में रख दिया। अब हर रोज वह उस बड़े फूल वाले पौधे के पास बैठती थी। इसके पास बैठना तो उसे बहुत अच्छा लगता था , पर यह पौधा उसे फूल नहीं लेने देता था। जब वो कोई फूल लेने की कोशिश करती थी, उसके हाथ में काँटा लग जाता था। ऐसा होने पर उसे अपने सदाबहार के उस पौधे के याद आती थी, जो अभी भी आँगन के एक कोने में चुपके से खड़ा उसका इंतज़ार किया करता था। कभी-2 किसी बात पर दुखी होने पर वह जाती थी, उस सदाबहार के पौधे के पास। धीरे धीरे करके वो पौधा मुरझा रहा था, उसकी पत्तियाँ पीली पड़ने लगी थीं, फिर भी जब भी वो उसके पास जाती थी, वह पौधा अपने सारे नन्हे फूल उसको दे देता था, जिसको पाकर वह मुस्कुराने लगती थी और वह पौधा वापस से कुछ खिल उठता था। 
बड़े फूल वाला पौधा अभी भी उसको ज्यादा प्यारा था, वह उसके ज्यादा पास भी था। वह अभी भी उसके ही पास बैठती थी घंटो, पर उसमे फूल आने अब कम हो गए थे, और कुछ समय बाद उसमे कोई भी फूल न था। उस दिन वह बहुत रोई, उसे अपने सदाबहार के पौधे की याद आयी, जिसने उसे हर दिन फूल देने का मानो वादा किया था, और उसे हमेशा निभाया भी था; फिर भी जिसके पास जाना उसने बंद कर दिया था। उसने वापस से उस सदाबहार के पौधे के पास जाने के बारे में सोचा, इस उम्मीद में कि वह आज फिर से उसे कुछ फूल देगा जिसको पाकर वह मुस्कुरा सकेगी। आँगन में जाकर उसने देखा कि सदाबहार का पौधा पूरी तरह मुरझा चुका है। शायद वह उसको फूल देकर और उसकी मुस्कान देखकर ही जिन्दा था; और उसकी बेरुखी ने शायद उस नन्हे पौधे को ख़त्म कर दिया था।
उसकी आँखों में उस नन्हे मृत पौधे को देखकर बहुत से आँसू आये, पर उन आँसुओं से भीगने पर भी उस आँगन में फिर कभी कोई सदाबहार का कोई पौधा न खिला।  

Sunday, December 8, 2013

चंद पंक्तियों की जिंदगानी


मैं था, वो थी, और खुशियाँ थीं।
मैं हूँ, वो ना है,  और ना ही खुशियाँ हैं।

"थीं" और "हैं" के इस फासले में ही सारी जिन्दगी है।