Sunday, September 6, 2009

सच का सामना

सच का सामना देखा,
लोग आए, सच का सामना किया,
बदले में पैसे लिए व चले गए।
हैरानी हुई सच को भी बिकते देखकर।
पर कहीं बड़ी हैरानी हुई,
उनके सच को सुनकर।
आपसी संबंधों में विश्वासघात,
अनैतिकता का सच था वह,
जिसे स्वीकार जा रहा था,
करोड़ो लोगों के सामने,
मात्र चंद पैसों के लिए।

पर क्या इतना ही सच है,
जो इस देश में है।
कईयों के सच और भी कटु है,
और भयानक भी,
पर कोई उन पर नही बोलता,
कोई उन पर नही सोचता।

सच - १ :
एक व्यक्ति सुबह उठता है,
घर में खाने को कुछ नही;
निकलता है काम की तलाश में,
पत्नी की आँखों में कुछ सवाल हैं?
वो सवाल है - क्या आज रात तो,
बच्चे फ़िर से भूखे नही सोयेगें।
उसके लिए यही एक सच है।

सच - २:
व्यक्ति बाजार जाता है,
काम की तलाश में।
कहीं पर भी नही कोई काम, उसकी खातिर।
आखिर वो प्रशिक्षित जो न था।
किसान का लड़का जो था,
कभी और कुछ सीखा ही नही,
सिवाय हल चलने के।
सवाल उठता है,
उसके मन में;
आखिर इसके लिए कौन है जिम्मेदार -
वह,
उसके गरीब किसान पिता,
या फिर समाज।
अफ़सोस इसका कोई भी जवाब न था,
न तो उसके पास,
और न ही हमारे पास।
यह भी एक सच है,
जो सेज के विकास के रास्तों से बाहर आता है,
और पूछता है
आखिर समाज का आखिरी इंसान ही क्यूँ देता है,
देश के विकास में अपना बलिदान?

सच - ३:
आखिर वह मजदूरों के समूह
में शामिल हो जाता है।
पुराने उसे डर की नजर से देखते हैं।
एक नया प्रतिद्वंदी जो आ गया,
हर नया उनमें से कुछ की भूख में,
इजाफा ही तो करता है,
यह भी एक सच है,
जिसका सामना हर सुबह,
किसी भी महानगर के हर दूसरे,
चौराहे पर होता है।

सच - ४:
खैर,
एक साहब आते हैं, उन्हें मजदूर चाहिए,
मोलभाव होता है,
सारी न्यूनतम मजदूरी सिमट जाती है,
कहीं कागजों में,
शायद आधी भी हो जाती है।
पल भर को उसके पैर,
लौटने को होते हैं;
आँखों के सामने बच्चे आ जाते हैं,
और कदम फिर रोक लिए जाते हैं,
कहने को कि,
जो भी दे दोगे,
मुझे काम करना है।
पर इस पल में ही,
साहब के मजदूर पूरे हो जाते हैं,
आखिर सबकी आंखों के आगे
वैसा ही दृश्य जो आता है,
बस चेहरे ही तो अलग हैं।
ये भी सच है, जो टीवी पर नही चौराहों पर बिकता है।

सच - ५ :
कई साहब और आते हैं,
पर उसे काम नही मिलता।
फिर कोई नही आता।
भटकता है वो राहों में,
पर कहीं कोई राह मंजिल कि ओर नही.
शाम ढले वो घर लौट पड़ता है,
बच्चे सो चुके हैं,
इंतजार में पिता के,
माँ ने कहा जो था
अभी पानी पी लो, पापा
खाना लेकर आयेंगे।
पत्नी उसे देखती है,
कुछ नही कहती सिवाय इसके,
आज भी भगवान को यही मंजूर था।
उसका मन करता है,
कम से कम बच्चों को लाड़ तो कर ले,
पर डरता है,
वे जाग गए,
तो उनके अनपूछे सवालों का,
क्या जवाब देगा, कि क्यूँ आज भी
उन्हें सिर्फ़ पानी पीकर सोना पड़ा।
उसके लिए यही सबसे बड़ा सच है,
जिसे वो हर दिन जीता है,
और जो सच,
उसे हर रोज़ मारता है,
एक हजार मौत।

सच - ६:
हफ्ते में ३ दिन बच्चों का भूखा सोना,
कितना कड़वा सच है न।
पर क्या सिर्फ़ उसके लिए,

आखिर कोई नही बोलता इस बारे में,
वो भी नही जिन्हें बोलना है,
जिनके पास जिम्मेदारी है ,
आवाज उठाने की,
और लड़ाई को अंजाम तक पहुंचाने की।
पर,
वे तो सोचना भी भूल चुके हैं,
बैठे हैं अपने ड्राइंग-रूम में,
एक टीवी सेट के सामने,
देखने के लिए सच का सामना,
विमुख होकर बाकी सारे,
गैर - मनोरंजक सच से॥

5 comments:

  1. bahut khoob pad kar aankhon main aansu aa gaye.........

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  2. wow! par kavita se zyada sach achchha hai....

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  3. haan! ye kavita kam ek kahani jyada hai, par mujhe lagta hai ki vichar hamesha shabd se jyada mahatvpoorn hote hain.

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  4. आखिर कोई नही बोलता इस बारे में,
    वो भी नही जिन्हें बोलना है,
    जिनके पास जिम्मेदारी है ,
    आवाज उठाने की,
    और लड़ाई को अंजाम तक पहुंचाने की।

    बहुत खूब .क्या बात है

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  5. Bahut khub likha hai.In sachon ka samna kaun karega?

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