" मेरे प्रेम! तुझको समर्पित"
जब पहली बार देखा,
उन आखों को,
ऐसा हुआ,
जैसा पहले,
कभी न हुआ था,
नटखट सी आँखें,
मानों हँस रही हों,
और कुछ
कह रही हों,
या फिर
चाहती हों कुछ कहना;
कुछ तो था उनमें,
थोडा सा प्यार,
थोड़ी सी शरारत,
और ढेरों नजाकत।
देखा था उन आखों में कुछ,
कुछ ऐसा,
कि इक पल में ही,
छिन गया था सब कुछ।
आज वो आँखें,
कितनी रूठी हैं मुझसे,
कभी जो किया करती थी
ढेरो बातें मुझसे।
मानों कह रही हो वो,
अब नहीं है मुझको
जरूरत तुम्हारी,
और न तुम्हारी,
यादों कीं,
न ही तुम्हारी,
बातों कीं॥
था उन आँखों में
शायद कुछ और ही;
जो मैं,
ना देख सका,
या फिर,
कभी देखना ही न चाहा।
पर,
क्या सच में है संभव,
रहना अनजानों सा,
अलग दिशा में,
बहते हुए वितानों सा।
दूर भले ही सदा,
रहूँ तुमसे;
पर हमेशा देखूंगा,
हमेशा सुनूँगा,
जो कभी पढ़ा था
तुम्हारी आँखों से॥
Wednesday, November 17, 2010
Tuesday, June 8, 2010
संसद में शराबी
गाँधी की रोती आत्मा पर हमें तरस भी न आया
.......सुना कि अब संसद जायेंगे विजय माल्या...
.......सुना कि अब संसद जायेंगे विजय माल्या...
Sunday, January 31, 2010
ओ! मेरे निष्ठुर प्रेम.....तुम लौट आओ न
फिर से,
देखना चाहता हूँ,
तुम्हारी मुस्कान.
फिर से,
करना चाहता हूँ बातें,
तुम्हारी चमकीली आँखों से.
फिर से,
खोना चाहता हूँ,
तुम्हारे लहराते आँचल में..
सोचा न था,
कि,
तुम सिर्फ,
ख्वाबों में सिमट जाओगी...
सोचा न था,
छोड़ मुझको अकेला,
यूँ ही,
चली जाओगी..
खिड़की पर बैठा,
देखता हूँ दूर क्षितिज,
होती बेचैन नजर,
तुझको कहीं न पाकर.
दिन से रात, रात से दिन,
यूँ ही बीतें जातें हैं,
सोचता हूँ नींद ही उतरे,
तेरे केशों से गुजरकर,
कभी, चुपके से आकर..
स्वप्न में ही खिड़की लाँघ,
जाऊं क्षितिज के पार,
शायद मिलो वही तुम,
करती मेरा इंत-जार..
फिर से,
तुमसे बातें करूँ,
बगैर,
किसी शब्द के साथ..
उमंगित किसी हिरणी सी,
प्रफुल्लित किसी मंजरी सी,
शायद सच में,
शायद सच में,
तुम हो उस पार.......
फिर से,
फिर से आकर वापस,
मेरे अश्रु, मुझे लौटाओ न.
ओ!
ओ! मेरे निष्ठुर प्रेम,
तुम लौट आओ न.
ओ! मेरे निष्ठुर प्रेम,
तुम लौट आओ न..........
देखना चाहता हूँ,
तुम्हारी मुस्कान.
फिर से,
करना चाहता हूँ बातें,
तुम्हारी चमकीली आँखों से.
फिर से,
खोना चाहता हूँ,
तुम्हारे लहराते आँचल में..
सोचा न था,
कि,
तुम सिर्फ,
ख्वाबों में सिमट जाओगी...
सोचा न था,
छोड़ मुझको अकेला,
यूँ ही,
चली जाओगी..
खिड़की पर बैठा,
देखता हूँ दूर क्षितिज,
होती बेचैन नजर,
तुझको कहीं न पाकर.
दिन से रात, रात से दिन,
यूँ ही बीतें जातें हैं,
सोचता हूँ नींद ही उतरे,
तेरे केशों से गुजरकर,
कभी, चुपके से आकर..
स्वप्न में ही खिड़की लाँघ,
जाऊं क्षितिज के पार,
शायद मिलो वही तुम,
करती मेरा इंत-जार..
फिर से,
तुमसे बातें करूँ,
बगैर,
किसी शब्द के साथ..
उमंगित किसी हिरणी सी,
प्रफुल्लित किसी मंजरी सी,
शायद सच में,
शायद सच में,
तुम हो उस पार.......
फिर से,
फिर से आकर वापस,
मेरे अश्रु, मुझे लौटाओ न.
ओ!
ओ! मेरे निष्ठुर प्रेम,
तुम लौट आओ न.
ओ! मेरे निष्ठुर प्रेम,
तुम लौट आओ न..........
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