" मेरे प्रेम! तुझको समर्पित"
जब पहली बार देखा,
उन आखों को,
ऐसा हुआ,
जैसा पहले,
कभी न हुआ था,
नटखट सी आँखें,
मानों हँस रही हों,
और कुछ
कह रही हों,
या फिर
चाहती हों कुछ कहना;
कुछ तो था उनमें,
थोडा सा प्यार,
थोड़ी सी शरारत,
और ढेरों नजाकत।
देखा था उन आखों में कुछ,
कुछ ऐसा,
कि इक पल में ही,
छिन गया था सब कुछ।
आज वो आँखें,
कितनी रूठी हैं मुझसे,
कभी जो किया करती थी
ढेरो बातें मुझसे।
मानों कह रही हो वो,
अब नहीं है मुझको
जरूरत तुम्हारी,
और न तुम्हारी,
यादों कीं,
न ही तुम्हारी,
बातों कीं॥
था उन आँखों में
शायद कुछ और ही;
जो मैं,
ना देख सका,
या फिर,
कभी देखना ही न चाहा।
पर,
क्या सच में है संभव,
रहना अनजानों सा,
अलग दिशा में,
बहते हुए वितानों सा।
दूर भले ही सदा,
रहूँ तुमसे;
पर हमेशा देखूंगा,
हमेशा सुनूँगा,
जो कभी पढ़ा था
तुम्हारी आँखों से॥