Saturday, March 5, 2011

हर सुबह, एक सी क्यूँ न होती?

हर प्रात, उठता है दिवाकर,
औ' निकलता है अपने रथ से,
रोशन करने, इस जहाँ को,
लुटाने किरणों को, अपने कर से ;

निष्पक्ष है वो,
कहीं न करता कमी;
और न,
कहीं ज्यादा देता वो;
हर शाख पर,
हर दिल पर,
समरूप,
खुशियाँ बिखेरता वो.

होता हूँ किसी सुबह खुश;
कभी अनुभव होता,
मानो रात हो कटी,
किसी भयावह स्वप्न में;


उठता है सवाल,
मेरे मन में 'पंकज',
आखिर,
हर सवेरा,
एक सा क्यूँ न होता?
कि आखिर,
हर सवेरा,
एक सा क्यूँ न होता?

2 comments:

  1. abe..har subah ek jaisa hi hota hai..sabko toilet hi jana padta hai subah uth ke :P

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  2. वर्मा जी:
    आप की कवितायेँ बहुत पसंद आयीं. लिखते रहिये..ब्लॉग संसार में आप का स्वागत..

    आशुतोष

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