Wednesday, February 8, 2012

हमारा मिलना

ख्वाब थी तुम,
या फिर हकीकत;
मैं कभी मिला तुमसे,
या वो था बस, मन का भरम;
जो है आज भी, बसा मन में,
और देता,
ढेरों मीठे एहसास.
क्या वो सच था?
या वो था बस, मन का भरम.

वो तेरे हाथों का स्पर्श,
जो आज भी, सिरहन देता;
या, 
बसंत के नव पुष्पित, फूलों सा मुस्काना;
और कभी,
यूँ ही किसी बात पर,
नजरों को झुकाना;
क्या वो सच था?
या वो था बस, मन का भरम.

न जाने कितने,
ख्वाब बुनता हूँ आज भी;
तुम ही होती हो,
उस हर इक ख्वाब में,
और हर एहसास में.
फागुन की हवा,
छूती जब तन को,
क्यूँ याद आता है,
तेरा आँचल.
जब गुजरता हूँ, उन राहों से;
जहाँ साथ तय किये थे, हमने फासले;
और वादे किये थे, कभी न जुदा होने के.
आंसू खुद ही अपनी राहें है खोजते.

हमारा मिलना,
क्या वो सच था?
या वो था बस, मन का भरम.

2 comments:

  1. वो सच था...और आप के अल्फाज भी तारिफ-ए-काबिल हैं...

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  2. beautifully expressed thoughts................

    loved it!!

    anu

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