Wednesday, February 22, 2012

बंदी

बुनते हैं ज़ाल,
हम खुद के चारों ओर;
जानते हुए यह,
कि मुमकिन न होगा,
इससे निकलना. 

हर दिन जोड़ते हैं,
एक नया तन्तु उसमे,
और पूरे होने पर,
छटपटाते हैं,
बाहर निकलने को उससे.

3 comments:

  1. bahut khoob bhaiya.. ! kaafi deep !

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  2. बहुत बढ़िया........
    गहन विचार..........................

    अनु

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