वे क्रान्तिकारी थे, बहुत बड़े वाले. वे उस शहर में रहते थे, जिसका क्रान्ति के नाम पर बेड़ा गर्क किया जा चुका था; कानपुर से. पर चूँकि वो चाहते थे कि क्रान्ति सिर्फ कानपुर को तबाह न करे, उन्होने क्रान्तिकारी किस्म की कवितायें लिखनी और नाटक नौटंकी करनी शुरु कर दी. उनकी क्रान्तिकारिता के 99 कविताओं तक पहुँचने के बाद उन्होने निर्णय लिया कि 99% लोगों को 1% लोगों के खिलाफ संघर्ष करना है, और उस 1% को नीचा दिखाने के लिए उन्होने 99 कविताओं की क्रान्तिकारी किताब छाप मारी. वह किताब जबर हिट रही और उसे हर उस शख्स ने पढ़ा जिसे उन्होने वो किताब मुफ्त में सप्रेम भेंट की.
उनकी क्रान्तिकारिता बेहद ही उच्च मार्का थी. अक्सर वो लिखते थे, कि वो फलाने और ढेमाके को मारके (रहिमाने को मारने के बारे में वो सेकुलर थे) फाँसी पर चढ़ जायेंगे; पर होता यही था कि वो अधिक से अधिक शुक्लागंज का पुल चढ़के उन्नाव जा पाते थे क्रान्तिकारी किस्म का नाटक करने. पर लोगों को मारने के प्रति उनका प्रेम इतना ज्यादा था कि यूँ तो उन्होने सारे जीवन में मक्खी के अलावा कुछ नहीं मारा, पर "मैं याकूब हूँ" की तख्ती टांगकर उन्होने ये साबित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी कि वो याकूब जैसे दमित वर्ग के हर [हत्यारे] शख्स के साथ हैं. और यह दिखाने के लिए कि वो फांसी के भी साथ हैं, उन्होने एक रैली में हिस्सा लिया, गले में " कमलेश तिवारी को फांसी दो" की तख्ती टांगकर.
इस प्रकार की क्रान्तिकारी गतिविधियों में भाग लेते लेते वो खुद को लेनिन समझने लगे और ऐसी ही एक क्रान्तिकारी नौटंकी करते वक्त यूपी पुलिस ने उनको धर लिया. उनकी बदकिस्मती से उनके सिर के केश औसत से थोड़े छोटे थे, वरना उनका चित्र भी आज तक के "बहुत क्रान्तिकारी" समाचार "यूपी पुलिस ने महिला रंगकर्मी को धरा" समाचार में आना तय था.
एक दिन क्रान्ति जरूर आयेगी. जिंदाबाद.
नोट - ऊपर लिखी बातें कुछ सत्य घटनाओं पर, पर अधिकतर मेरी कल्पना पर आधारित हैं. बाकी आपकी कल्पना.
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