Monday, August 29, 2016

युद्ध-यंत्र

युद्ध का 18वाँ दिन समाप्त हो चुका था, पांडवों को विजय प्राप्त हो चुकी थी. दोनों पक्षों की अधिकाँश सेना का अंत हो चुका था. कृष्ण पांडवों को उनके शिविर में छोड़कर युद्धभूमि से लौट रहे थे. उनको एक सैनिक दिखाई पड़ा. वो मूर्तिवत एक जगह पर खड़ा होकर देख रहा था, चारों ओर बिखरी लाशें और उन पर मंडराते गिद्द और तमाम मुर्दाखोर।

कृष्ण के मन में उत्सुकता जगी कि ये कौन सैनिक है जो इतने महान युद्ध में विजय हासिल करने के बाद उसका जश्न मनाने के बजाय ऐसे युद्धभूमि पर खड़ा है. वो उससे बात करने को पहुँच गए.

"सैनिक! हम विजयी हुए, तुम्हारी वीरता काम आयी, इस विजय का श्रेय तुमको युगों युगों तक मिलेगा" कृष्ण ने कहा.
सैनिक ने कोई जवाब नहीं दिया, यहाँ तक कि पलकें भी न झपकायीं.
"किस देश से आये हो तुम, सैनिक?" कृष्ण ने अगला सवाल पूछा.
"सिंधु-सौवीर से", इस बार उसने जवाब दिया.
"तुम पांडवों की ओर से लड़े?"
"पांडव कौन हैं?" जवाब आया
"तो क्या तुम कौरवों की ओर से थे?" ये कहते हुए कृष्ण का हाथ अपने में लटकी कटार की ओर बढ़ा. युद्ध समाप्त हो चुका था और शस्त्र न उठाने की प्रतिज्ञा भी.
"कौरव कौन हैं?" सैनिक ने उसी भाव से जवाब दिया.
"तुम कौन हो? क्षत्रिय? शूद्र? ब्राह्मण? या आजीविका से आकर्षित होकर सैनिक बने कोई वैश्य?" पहली बार कृष्ण किसी की आखों को और प्रवित्ति को पढ़ने में असमर्थ रहे थे और अब उस सैनिक के बारे में सब कुछ जानने की उनकी उत्कंठा बढ़ चुकी थी.
सैनिक वैसे ही उनको देखता रहा, अब तक उसने एक बार भी पलक नहीं झपकायीं थी. उसी तरह अपलक कृष्ण को देखते हुए उसने कहा,
"मैं युद्ध-यंत्र हूँ".
कृष्ण उसकी आँखों में देखने से अब खुद को असहज महसूस करने लगे थे. फिर भी एक सवाल और पूछ ही लिया युग के सबसे बड़े कर्मयोगी ने,
"क्या कर्म है तुम्हारा"
"मृत्यु" सैनिक ने अपलक कृष्ण की आखों में देखते हुआ कहा. उसकी आवाज किसी और लोक से आ रही थी.
रणभूमि से सारे शव गायब हो गए और उनकी जगह वहां पर तीन शव पड़े थे. कर्म, ज्ञान और भक्ति योग के. चारों ओर मृत्यु का अट्टहास गूँज रहा था.

1 comment:

  1. it's moving and perfect description of whats happening in Kashmir and everywhere else.
    Bravo !

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